अब मानसूनोँ का चौमास आया
भूरे बादलोँ को चीरकर
गाड़ गधेरोँ ने संगीत सीखा
ऐ ददा, पैर-पखाणोँ की फिकर
फुहारोँ ने बड़ाया सफर रोपाई मडुवा झंगोरा फांफर
मेढकोँ ने बेसुरा गाया
ऐ ददा, टर्र टर टर्र टर
गाड़ गधेरे ताल चोपटाल जोँक उमस छिनघौ कच्यार
सबका चरम समेटे आया
ऐ ददा, हरेले का पोषक त्यार
काली रातेँ सफेद हौल
घाम द्यो घाम द्यो चौल मचौल
कुकुरबिटेसी ककड़ा रौल
तेर हारि घोगा आगा घौल
खाना खाया नखाना सुखाया
लटपट शाग पपड़ा नौल
गमरा दीदी मैशर भीना
आठूँ के धारे और कशार
दिन भर बिरुड़ चाँचरी ब्याल
भीगते बँजारे खतरे मेँ श्याल
ऐ ददा, संभल के रस्ते मेँ श्यांल
गीली दीवार टपकता स्कूल
शिक्षा मेँ सीलन भीगा सा ख्याल
एम डी एम मेँ कद्दू-कर्याल
और भीगे से ब्लैकबोर्ड मेँ अंग्रेजी का सवाल
ऐ ददा, वन मीन्स एक स्नेल मीन्स गण्याल। -लोकेश डसीला
(वर्षा, 2010)
मंगलवार, 10 अगस्त 2010
सोमवार, 26 जुलाई 2010
कृषि प्रधान देश में किसानों की आत्महत्या के लिए पिछले चार दशकों से चली आ रही नीतियाँ ही जिम्मेदार हैँ । छोटी व मध्यम जोत के जो किसान बीज बचाने व खाद तैयार करने में सक्षम हैँ उन्हेँ हाइब्रिड बीज के साथ यूरिया जैसा जहर सब्सिडी मेँ दिया जाता है । इन बीजों की फसलें नए बीज तैयार करने में अक्षम हैं ऐसे में किसान फिर एजेंसियों की बाट जोहता है । ये उत्पादक को उपभोक्ता बनाने का एक नायाब तरीका है । परम्परागत प्रजातियाँ जो कि वास्तविक Landrace हैं मौसम के अनुकूल, स्वादिष्ट व औषधीय गुणों से युक्त होती हैँ। ये लगातार हाशिए पर जा रही हैँ जबकि फिट भर के बेस्वाद मक्कोँ जैसी हजारोँ कृष्य प्रजातियाँ विकास के नाम पर आखिरी गाँवों तक पहुँच चुकी हैं । ये एक बड़ा खेल है जिसमें किसान केवल मोहरा भर है।
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